*पत्रकारों की हत्या एवं उनपर फर्जी मुकदमे होना चिंताजनक:- शास्त्री*


ऑल इंडिया प्रेस रिपोर्टर वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार आचार्य श्रीकांत शास्त्री ने कहां है कि जिस प्रकार से देश में पत्रकारों की हत्या एवं उनके ऊपर फर्जी मुकदमे व उनका उत्पीड़न एवं उनको बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है यह बहुत ही दुखद एवं चिंताजनक है। यह कृत्य सीधा-सीधा चौथे स्तंभ को दबाने की खड्यंत्रकारी साजिश है जो इस प्रकार के लोकतांत्रिक देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।


देश के विभिन्न प्रदेशों में पत्रकारों की हत्या एवं उनके ऊपर फर्जी मुकदमे व जेल भेजने की सुनियोजित घटना होना, इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि सही तथ्य को छिपाने एवं गलत को सही साबित करने की कोशिश की जा रही है। इसका सीधा उदाहरण उत्तर प्रदेश के कई जिलों से मिलता है प्रयागराज में पत्रकार विष्णु देव पांडे द्वारा भगवतपुर ब्लॉक के खामियों के संबंध में कुछ समाचार प्रकाशित किया जिनके विरुद्ध वहां से नोटिस जारी कर दिया गया, इसी जनपद के थाना नैनी, सरायनाइत, कौंधियारा थानों में पत्रकारों का उत्पीड़न किया गया, उपरोक्त की भांति कौशांबी, फतेहपुर मे भी पत्रकारों के खिलाफ उत्पीड़नात्मक कार्यवाही किया गया जो बहुत ही चिंतनीय विषय है।


जहां पर पत्रकारों ने अपनी सुरक्षा हेतु पुलिस से सहयोग मांगा जिसके बावजूद पुलिस ने सहयोग नहीं दिया जिसके लापरवाही के कारण तीन पत्रकारों को गोलियों से उड़ा दिया गया। इसी तरह उत्तराखंड में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक खामियों को उजागर करने वाले  पत्रकारों पर राजद्रोह के तहत मुकदमा दर्ज कर जेल भेज दिया गया यह बहुत ही खेद का विषय एवं पत्रकारों की आवाज दबाने की कोशिश है।


इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों पर खबर दिखाने एवं छापने पर राजद्रोह का मुकदमा एवं गैंगस्टर लगना निंदनीय है।

 

श्री शास्त्री जी ने कहा कि जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश में अपराधियों द्वारा गोलियों से मारे गए पत्रकार क्रमशः शलभमणि तिवारी, विक्रम जोशी और रतन सिंह ने हत्या होने की आशंका के कारण अपनी अपनी सुरक्षा हेतु  पुलिस से पहले से ही सहायता मांगी थी, सहायता न मिलने के कारण इन लोगों की हत्या होना बहुत ही अफसोस का विषय है।


ऑल इंडिया प्रेस रिपोर्टर वेलफेयर एसोसिएशन परिवार ने सरकार से मांग किया है कि पत्रकारों पर बढ़ते हमलों, हत्या, उत्पीड़न एवं फर्जी मुकदमो को रोकने के लिए पत्रकार सुरक्षा कानून बनाया जाए।

"अतिक्रमण का नाम--- बिगाड़े सारे काम" (Dr.Kusum Pandey)



अतिक्रमण का सीधा सा अर्थ है उचित मर्यादा यह सीमा से आगे बढ़ना अर्थात अपने कार्य अधिकार क्षेत्र की सीमा पार करके ऐसी जगह पहुंचने की क्रिया जहां जाना या रहना अनुचित मर्यादा के विरुद्ध या अवैध हो सही अर्थ में सीमा का अनुचित उल्लंघन ही अतिक्रमण कहलाता है।


एक शब्द के विविध अर्थों का लोगों ने दुरुपयोग करके सिर्फ अपने स्वार्थ की सिद्धि की है। जिस क्षेत्र में देखो वही अतिक्रमण--- राजनीति से लेकर सामान्य जीवन तक हर जगह अतिक्रमण नजर आता है।


वैसे तो यह सब तुम मुझे हमेशा ही परेशान करता है लेकिन आजकल तो कुछ ज्यादा ही नजर आने लगा है। अतिक्रमण का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है लेकिन आज मैं सिर्फ पार्किंग के लिए किए गए अतिक्रमण पर ही ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं।

 बचपन में हम लोगों को  "रूल्स ऑफ द रोड" पढ़ाया गया था जिसमें हमें सड़क पर चलने के नियम बताए गए थे और वह इसी बात को इंगित करते थे कि हमें अपने फायदे के लिए दूसरे के हितों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। मैं वैसे भी नियम कायदे मानने में विश्वास करती हूं और जहां तक संभव हो दूसरे को परेशान नहीं करना चाहती। इसलिए दूसरों के द्वारा अतिक्रमण को देखकर मन बहुत आहत हो जाता है।


हां अभी कुछ दिन पहले हमारे एक रिश्तेदार घर आए और उन्हें घर से दूर गाड़ी खडी करनी पड़ी, ऐसा नहीं है कि मेरे घर तक गाड़ी नहीं आ सकती पर पड़ोसियों ने अपनी गाड़ियां लगा रखी तो उनको जगह ही नहीं मिली।


पहले लोग घर बनाते थे तो गाड़ी खड़ी करने की जगह घर के अंदर रहती थी और लोग गेट के अंदर ही गाड़ी गाड़ी खड़ी करते थे। लेकिन अब धीरे-धीरे सब लोगों को लगने लगा है कि सड़क भी तो हमारी है। फिर एक ने बाहर गाड़ी खड़ी करनी शुरू की फिर एक को देखकर दूसरा ,तीसरा और अब तो मुश्किल से हम और एक दो लोगों को छोड़कर सभी की गाड़ियां सड़क पर ही मिलेंगी।


तकलीफ तो इस बात की है कि लोगों के घर में गाड़ियां तो तीन-चार है पर सब रहेंगी सड़क पर। किसी के घर कोई मिलने आए तो आखिर वह अपनी गाड़ी लेकर कहां जाएं ???यह बात लोगों ने सोचा ही नहीं कि अगर सब लोग ऐसा करने लगे तो सड़क तो चलने के लिए बचेगी ही नहीं। और अगर आप किसी को मना करिए तो अपनी गलती ना मानकर मुह फुला लेता है।


इस तरह तो शहरों की सूरत बिगड़ती ही जा रही है। अक्सर शहरों में नया बना आधारभूत ढांचा पांच छह साल  बाद ही बढ़ती जनसंख्या के कारण नाकाफी लगने लगता है। ऐसे इलाके गंदगी, अतिक्रमण ट्रैफिक जाम प्रदूषण से जुड़ने लगते हैं। अनियोजित तरीके से बनी कॉलोनिया कोई बड़ा घर, बगल में ही छोटा घर ---पर गाड़ी तो सबके पास है। तो क्या यह नहीं होना चाहिए कि लोग घर बनाने से पहले यह भी ध्यान रखें कि गाड़ी खड़ी करने की जगह जरूर बनाएं।


यह बहुत ही शर्मनाक लगता है कि लोग किराएदार तक का ध्यान रखकर घर बनाते हैं लेकिन पार्किंग का ध्यान नहीं रखना चाहते।

 सही मायने में शहरों के नियोजित विकास का भार जिन शहरी निकायों पर हैं उन्हें सक्षम और जवाबदेह बनाने में राज्य सरकारों के अलावा सभासदों, मेयरो और विधायकों की भी जिम्मेदारी है। अगर मकान का नक्शा पास करते समय इस बात पर ध्यान दिया जाए कि जितनी जमीन हो उसी के हिसाब से गाड़ी और पार्किंग का ध्यान दिया जाए तो समस्या काफी हद तक कम हो सकती है।लेकिन लोगों का शौक बनता जा रहा है जो सड़क पर गाड़ी खड़ी करना।


शहरों के नियोजित विकास हेतु जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही तय करने के लिए कोई ऐसा तंत्र विकसित होना चाहिए ताकि उनके काम का सतत्  आंकलन हो सके।

 सिर्फ फ्लाईओवर बना देने, मेट्रो बना देने या फिर सड़कों का चौड़ीकरण कर देने से किसी शहर का विकास नहीं होता है। असली शहरीकरण तो लोगों के अपनी मर्यादा में रहने से होता है। यदि आज हम  अतिक्रमण की समस्या से जूझ रहे हैं तो इसका कारण हम स्वयं हैं--- 


हमारी इच्छा शक्ति ही कमजोर है जो हमें मर्यादा तोड़ने के लिए विवश करती है और मन में लालच पैदा करती है।

यदि आज हमारे शहरों में अतिक्रमण की समस्या नहीं सुलझ रही है तो इसके लिए वास्तव में धन का अभाव नहीं वरन लोगों की इच्छा शक्ति का अभाव है। 


यदि आज से हम सब लोग यह सोच ले कि हमें अपनी गाड़ियां अपने गेट के अंदर करनी है तो आधी समस्या तो कम हो जाएगी।लेकिन इसके लिए संकल्प लेना जरूरी है। क्योंकि संकल्प से बड़ी कोई शक्ति नहीं है और बदहाल पार्किंग अतिक्रमण को रोकने के लिए इतना संकल्प तो लेना ही चाहिए।

धन्यवाद.....

डॉ. कुसुम पांडेय

वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका

"धरती के भगवान से आखिर कितनी अपेक्षा"



कोरोनावायरस से उपजी  महामारी कोविड-19 के असर की समीक्षा के दौरान प्रधानमंत्री जी ने यह सही कहा कि अगर अधिक मरीजों वाले राज्य कोरोना को हराने में सफल हो जाए तो हमारा देश जीत जाएगा।


लेकिन यह चिंताजनक है कि संक्रमण फैलते जाने के बाद भी तमाम लोग मास्क लगाने या शारीरिक दूरी के नियमों का पालन करने से परहेज कर रहे हैं। यह सही मायने में एक किस्म की आपराधिक लापरवाही है।


यह जानते हुए कि इस महामारी का कोई सीधा इलाज नहीं है और इसका भी भरोसा नहीं है कि वैक्सीन कब आएगी?? बाजार आदि जगहों पर कितने ही लोग दिखते हैं जो ना तो मास्क लगाए होते हैं और ना ही शारीरिक दूरी बनाने में विश्वास करते हैं। 


आखिर मास्क  का सही प्रयोग और शारीरिक  दूरी के नियम पालन के साथ साफ सफाई और सेहत का ध्यान रखना हर किसी की प्राथमिकता क्यों नहीं बन सकता????


क्या यह हर नागरिक की अपने और अपने देश के प्रति नैतिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी नहीं है???


सिर्फ सरकारी तंत्र और सरकारी डॉक्टरों के ऊपर सारी जिम्मेदारी डाल देना बिल्कुल भी उचित नहीं लगता है।


जब से कोरोना संक्रमण शुरू हुआ है। सरकारी सेवादारों का कोई लॉकडाउन नहीं हुआ और बाकी सेवादारो का तो काम कम हो गया लेकिन सरकारी डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मियों का काम तो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। लगातार काम करते वह सब भी थक जाते होंगे इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। आए दिन लोगों की शिकायतें ही बढ़ती जा रही हैं।


सरकार और जनता की अपेक्षाओं के बोझ तले सरकारी डॉक्टर पिस रहे हैं। कोई भी वायरस यह देखकर संक्रमण नहीं करता कि डॉक्टर को छोड़ देना है, फिर भी सरकारी डॉक्टर दिन रात एक किए हैं। उनकी सेहत के विषय में सरकार भी आंखें मूंदे बैठी है और सिर्फ आंखें दिखा रही है।


सरकार का सवाल है कि मरीज और मृत्युदर  क्यों बढ़ रही है??? तो यह जवाब तो  स्वयं सरकार और जनता के पास है। लॉकडाउन रहा हो या अनलॉक हो बहुत सारे लोग सरकारी गाइडलाइंस का पालन करने में अपनी बेइज्जती समझते हैं।

उन्हें सारी शिकायतें डॉक्टरों से रहती है। कुछ भी गलत हो तो सरकारी डॉक्टर जिम्मेदार हैं। वहीं प्राइवेट डॉक्टर जो जनसेवा का भाव भुलाकर इस समय भी मनमानी फीस वसूल रहे हैं और घर बैठे मजे भी कर रहे हैं।


क्या यही मानवता है?? क्या यही सफेद कोट वाले कोरोना योद्धाओं  का सम्मान है?? डॉक्टर जान हथेली पर लेकर वायरस के खिलाफ जंग जीतने के लिए तैयार हैं और जान से भी हाथ धो रहे हैं साथ ही मानसिक और शारीरिक वेदना भी सह रहे हैं।


आंकड़े बताते हैं कि कोरोनावायरस के पाजिटिव मरीजों के बाद सेवादारों में सबसे ज्यादा डॉक्टरों की मृत्यु हो रही है। डॉक्टर वह भी सरकारी वाले----


बड़े-बड़े गैर सरकारी चिकित्सा संस्थान और वहां के डॉक्टर तो बहुत ही गैर जिम्मेदाराना व्यवहार का परिचय दे रहे हैं। एक तरफ तो तथाकथित व्यवसायिक चिकित्सा केंद्र मरीजों से मोटी रकम वसूल रहे हैं और दूसरी तरफ अपने यहां काम कर रहे डॉक्टरों को चार-पांच महीने से वेतन भी नहीं दे रहे हैं। और यदि उनके डॉक्टर कोरोना  पॉजिटिव निकल रहे हैं तो अस्पताल उन्हें कचरे की तरह बाहर फेंक रहे हैं,  सही भी है काम निकल गया तो अब चर्चा क्यो????


धरती के भगवान को क्या यही सम्मान मिलना चाहिए?? क्या डॉक्टर विहीन समाज की कल्पना की जा सकती है??? नहीं तो फिर उनके प्रति सरकार और जनता दोनों को संवेदनशील होना पड़ेगा। डॉक्टर्स भी  हमारी और आपकी तरह इंसान हैं तो उनके प्रति भी मानवता पूर्ण व्यवहार ही होना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि वह जी जान से काम भी करें और बदले में उन्हें दोषारोपण भी सहना पड़े। सभी देशवासी अपनी स्वयं की जिम्मेदारी का निर्वाह करें और यदि ऐसा होने लगे तो कोरोनावायरस के संक्रमण की रफ्तार को जल्द ही काबू में कर के जनजीवन को  सामान्य किया जा सकता है।


साथ ही मरीजों से भी यह निवेदन है कि शिकायती लहजे का त्याग कर अपने आत्मबल को ऊंचा कर डॉक्टरों का पूर्णता सहयोग और सम्मान करते हुए कोरोना जंग को जीतने का संकल्प लें। एक दूसरे के सहयोग के बिना इस जंग में सफलता नहीं पाई जा सकती है। अस्पताल और डॉक्टरों की भी अपनी सीमाएं हैं।  


मरीज इलाज कराने गए हैं तो उसको भी सुविधा  भोगी रवैया त्यागना होगा क्योंकि डॉक्टर और अस्पताल उतना ही कर सकते हैं, जितना उनके पास साधन होगा।


बढ़ती मरीजों की संख्या को कम करने पर विशेष ध्यान देते हुए घर में रहें और सुरक्षित रहें का पालन करते हुए अपने डॉक्टरों को भी सुरक्षित बनाने में हम सब मिलकर सहयोग करें। 


यदि डॉक्टर्स भी सिर्फ निंदा की परवाह करेंगे तो कुछ नहीं कर पाएंगे। तो हमें भी उनकी जान और उनका सम्मान बचा कर रखना है और धरती के भगवान का दिल से आभार व्यक्त करना है।

धन्यवाद......

                                    

वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका

डॉ. कुसुम पांडे

"हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की" By Dr. Kusum Pandey



भगवान श्रीकृष्ण पूरे विश्व में पूजे जाते हैं। वह हम सबके भगवान है या यूं कहिए वह एकदम हमारे जैसे हैं हमारे आपके बीच के इंसानों जैसे।

रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता "कृष्ण की चेतावनी" की कुछ लाइनें याद आ रही हैं "सब जन्म मुझी से पाते हैं  फिर लौट मुझी में आते हैं"


श्री कृष्ण मर्यादाओं में बंधते नहीं है बल्कि नई मर्यादा रचतेे हैं। वे राधा के प्रेम में समाज की संकुचित मानसिकता को ना सिर्फ तोड़ते हैं बल्कि राधा को प्रेम के सर्वोच्च शिखर पर बैठाते हैं ।उनकी नजरों में प्रेम कोई अपराध नहीं है।


भगवान कृष्ण ने बचपन से ही अत्याचार का विरोध किया। बहुत सारे कष्टों को सहा। जन्म लेते ही अपने माता पिता को छोड़ा। पूतना, बकासुर, नरकासुर का वध किया। भगवान कृष्ण बहुत उदार रहे। उन्होंने गवालों के बच्चों को दूध माखन खिलाने के लिए माखनचोर कहलाना पसंद किया। द्रौपदी की लाज बचाई लेकिन उन्हें कमजोर और अशक्त नहीं किया। सुदामा, अर्जुन और द्रौपदी से निश्चल प्रेम किया लेकिन जरूरत पड़ने पर जयद्रथ जरासंध, और दुर्योधन को मारने में छल करने में भी संकोच नहीं किया।

लाख कष्ट सहे लेकिन अपनी मधुर मुस्कान नहीं छोड़ी। यशोदा मां से हट करना नहीं छोड़ा। कृष्ण बुद्धि और शक्ति  के अद्भुत संतुलन के सबसे बड़े प्रतीक हैं।


युद्ध के मैदान में निराश अर्जुन को गीता का ज्ञान देने वाले श्री कृष्ण महायोगी, गुरु और कर्म के सिद्धांत के महान समर्थक हैं।

श्री कृष्ण समस्त 16 कलाएं विद्यमान है इसीलिए संपूर्ण अवतार माने गए हैं। श्री कृष्ण जगतगुरु हैं उन्होंने गीता के माध्यम से संपूर्ण सृष्टि को जीने का मार्ग दिखाया। कर्म योग की व्याख्या की। मनुष्यों को जन्म मरण के बंधन से छुड़ाकर मुक्ति का मार्ग दिखाया ।और कहा सबमे मैं हूं कोई दूसरा नहीं, किसी भी चीज में अधीन नहीं हो और ना किसी को अपने अधीन करो। मानव को समझाया कि निष्काम हो जाओ। सारी सृष्टि भगवान श्री कृष्ण की बनाई है मानव तो केवल कठपुतली है।


"हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की" 


हम जब भी भटकते हैं तो भगवान कृष्ण हाथ पकड़ लेते हैं और अंतिम सांस तक जूझने की प्रेरणा देते हैं।मन में आकर कहते हैं कि  "कोई भी दुख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, हारा वही जो लड़ा नहीं"

श्री कृष्ण ऐसे पथ प्रदर्शक हैं उनको बारंबार कोटि कोटि  प्रणाम।


जेल में जन्मा लिखूं या यशोदा का ललना लिखूं माखन चोर लिखूं या चित् चोर लिखूं  नंदगोपाल पर कितना भी लिखूं  फिर भी वह अपरिभाषित ही रहेगा।


यशोदा नंदन कृष्ण आत्म संयम की पूज्य मूर्ति हैं।उनसे हम जीवन में संतुलन की शिक्षा ले सकते हैं। और जब हमारे अंदर आत्म संयम होगा तभी हमारे जीवन में श्री कृष्ण का जन्म होगा।


इस कोरोना काल में आत्म संयम सबसे जरूरी है। भले ही इस साल कोरोना के कारण जन्माष्टमी का उल्लास और आनंद प्रत्यक्ष कम  दिखे पर मन में तो श्री कृष्ण ही इस महामारी से जीतने की कला सिखा रहे हैं। जिस तरह महाभारत के युद्ध में कृष्ण नीति कौरवों को परास्त कर पांडवों का विजय हर्ष मनाती है उसी प्रकार हमें भी कोरोना के खिलाफ लड़ाई में आचार विचार और आहार-विहार के संयम नियम से विजय पानी है।भगवान कृष्ण ने सदैव यही शिक्षा और ज्ञान दिया है कि हमें अपने कर्म को करना नहीं भूलना है फिर बाकी तो भगवान संभाल ही लेंगे।


आज पूरी दुनिया ही कोरोना युद्ध लड़ रही है। जिसमें चिकित्सक, शासक, प्रशासक, आम जनता और समाज अपने अपने तरीके से कोरोना को हराने के लिए युद्ध कर रहे हैं। 


इसलिए सच्ची श्रद्धा से  हम सभी अपने कर्म का पालन करें और यही सच्चे अर्थों में श्रीकृष्ण को हमारी भक्ति और समर्पण होगा।


वरिष्ठ समाजसेवी अधिवक्ता एवं लेखिका 

डॉ. कुसुम पांडेय

सरकार द्वारा देश के पत्रकारों को कोरोना वारियर्स न मानना दुर्भाग्यपूर्ण:- शास्त्री

ऑल इंडिया प्रेस रिपोर्टर वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार आचार्य श्रीकांत शास्त्री जी ने कहा है कि देश मे कोरोना महामारी की वजह से मीडिया जगत गंभीर आर्थिक संकट झेल रहा है, फिर भी देश के समस्त अखबार, मीडिया चैनल व पत्रकार दिन रात  अपनी जिम्मेदारियां निभाने में लगे है। यहां तक की देश के कई पत्रकारों की जान भी जा चुकी है, और वर्तमान में काफी संख्या में इस महामारी से ग्रसित व इलाज के अभाव में बीमार हैं, और कुछ पत्रकार साथी अस्पतालों में भर्ती हैं इसके बावजूद सरकार अभी तक पत्रकारों को वारियर्स नहीं माना। हम सरकार से लगातार मीडियाकर्मियों को भी कोरोना वारियर्स मानने व उन्हें बीमा कवर देने की मांग कर रहे है। लेकिन खेद है कि अभी तक इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया बल्कि उल्टा अखबारों एवं पत्रकारों के विरुद्ध सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार के अधीन ज्ञापन ब्यूरो ऑफ आउटरीच कम्युनिकेशन (डीएवीपी) द्वारा जबरदस्ती नई ज्ञापन नीति 2020 लागू कर दिया गया जो बहुत ही दुःखद है। 


जबकि देश के प्रधानमंत्री महोदय एवं देश के समस्त प्रदेश सरकारे भी इस महामारी के दौर में मीडिया की प्रशंसा तो कर रहे है, लेकिन पत्रकारों को वारियर्स की घोषणा नहीं कर रहे हैं, यहां तक कि पिछले दिनों, लॉकडाउन के दौरान देश के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल विपिन रावत कहे थे कि  देश के पत्रकार ही सही कोरोना वारियर्स  है। एसोसिएशन परिवार उनका आभारी है। हमारे पत्रकार साथी इस महामारी में रिपोर्टिंग के साथ, राष्ट्र सेवा के कार्यो में भी सरकार के साथ लगे है। इसके बाद भी पत्रकारों को अभी तक कोरोना वारियर्स की श्रेणी में ना रखा जाना बहुत ही  दुर्भाग्यपूर्ण है, ऑल इंडिया प्रेस रिपोर्टर वेलफेयर एसोसिएशन देश के समस्त पत्रकारों को कोरोना वारियर्स मानती है और एसोसिएशन द्वारा पत्रकारों को कोरोना योद्धा मानपत्र देकर सम्मानित किया गया है।

सरकार से मेरी मांग है की पत्रकारों की गंभीर समस्या को दृष्टिगत रखते हुए अन्य कोरोना वारियर्स की तरह पत्रकारों को भी वारियर्स की श्रेणी में रखा जाए।

वरिष्ठ लेखिका *डॉ. कुसुम पांडेय* द्वारा "करोड़पति कैसरोल" वाली, एक हास्य व्यंग्य



कभी-कभी हमारे  आपके जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घट जाती  हैं जो सालों बाद भी  याद रहती हैं। जब भी याद ताजा होती है तो  हंसी आती है। हंसी इस बात पर भी आती है कि लोग चीजों को किस किस नजरिए से देखते हैं।


नहीं नहीं मैं सिर्फ यह  बात कहने जा रही हूं कि जैसे आज-कल चलन है कि बात बात में लोग गिफ्ट देते हैं।यह एक फैशन सा हो गया है। उपहार देना, शगुन देना। 

 

आजकल अंग्रेजी हिसाब से गिफ्ट देना तो   अत्यावश्यक बात हो गई है।अगर आप किसी के यहां जा रहे हैं और गिफ्ट नहीं लेकर जा रहे हैं तो लोग अजीब सा मुंह बना लेते हैं। अरे यह तो खाली हाथ चले आए हैं। लिफाफा देखकर भी लोग खुश हो जाते हैं।


 लेकिन गिफ्ट की बात कुछ और ही होती है। लगता है कि कोई हमारे लिए कुछ लिया है, खरीदा है, पसंद किया है। उसका मनोभाव रहा होगा। उसके मन में मेरे लिए कितना खयाल आया होगा।


बचपन में एक कहावत सुनी थी कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते हैं। नहीं यहां गिफ्ट दान तो नहीं है। यह तो  आदान-प्रदान है। दान तो वह होता है कि एक हाथ से दे तो दूसरे हाथ को भी ना पता चले। 

 

गिफ्ट एक तरह का आदान-प्रदान होता है। आदमी उम्मीद से देता  है कि मैं इनको दे रहा हूं तो कल को यह भी मुझको वापस करेंगे।


 हां यह बात तो ठीक है अगर लिया है तो देना तो चाहिए। तो हंसी किस बात की है। कई बार हम  आप सभी लोग इस स्थिति से गुजरते हैं कि जब हमारे यहां लोग किसी मौके पर गिफ्ट ले करके आते हैं ऐसे ऐसे गिफ्ट ले आते हैं तो  यह समझ में नहीं आता कि आखिर अब इसका करें तो करें क्या ???


यह या यूं कहिए कि अब किसके गले लगाया जाए  हां उन्होंने भी गले लगाने के लिए ही यह हमारे पास पहुंचा दिया है।  


कई बार होता है कि जिस तरह से यह दुनिया गोल है उसी तरह से गिफ्ट भी गोल गोल घूमते घूमते उसी के घर में पहुंच जाता है।जहाँ से चला होता है।

 

हालांकि यह बात किसी का मजाक उड़ाने के लिए नहीं कही जा रही है और ना तो किसी व्यक्ति विशेष को इसके लिए इंगित किया जा रहा है।


  समाज का नजरिया इस तरह से बन गया है। हालांकि सभी लोग ऐसा नहीं करते हैं। बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जो इस भाव से ही गिफ्ट देते हैं कि वास्तव में उनकी दी हुई कोई छोटी सी छोटी चीज भी प्यार और मन से आपके लिए लेकर आते हैं, कि वह उस रूप में आपको पसंद आ ही जाती हैं।


 लेकिन कई बार हमने देखा है कि कुछ ऐसे लोग जिनसे आप कभी अपेक्षा भी नहीं कर सकते हैं और वह आपके घर ऐसे गिफ्ट देकर जाते हैं जिसको लेने के बाद आप को यह समझ में नहीं आता कि आप किसको दें??? 


किसको दें?? मतलब अगर आप अपनी कामवाली को भी दें तो यह लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी का मजाक बनाने की कोशिश कर रहे हैं।


मेरे साथ भी एक बार ऐसी घटना घट चुकी है। उससे मुझे याद आया कि थोड़ा हंसना तो बनता है।  

 

करोड़पति कैसरोल वाली -- किसी खास सहेली ने मेरे एक बहुत मौके पर  मुझे कैसरोल सेट गिफ्ट में दिया।

 बड़ी अच्छी पैकिंग कराकेे। भगवान की दया से बहुत पैसे वाले लोग भी थे। घर में बहुत सारे लोग घर में इकट्ठा थे। तो उसमें से मेरी एक रिश्तेदार ने कहा कि आप बाकी काम में लगी हुई हैं तो हम गिफ्ट खोलने का काम कर लेते हैं।और किसने क्या दिया है,यह भी नोट कर लेते हैं। पहली बार मुझे लगा कि गिफ्ट भी लिखा जाता है।उन्होंने कहा कि आपको भी सबको वापस करना होगा। मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि बदले में मुझे देना है।मुझे तो जो अच्छा लगता है मैं  उपहार के रूप में देती हूँ।बिना कोई मोल भाव सोचे हुए।


मैंने अपनी रिश्तेदार से कहा कि आप यह काम कर लें। तो उन्होंने सारे गिफ्ट में से सबसे पहले मेरी करोड़पति दोस्त का पैकेट खोला। तो उसमें से कैसरोल का सेट निकला। सभी का मुंह खुला का खुला रह गया। अरे यह क्या यह कोई गिफ्ट है??? मैंने कहा ऐसा नहीं कहते लेकिन सारे लोग निराश हो गए क्योंकि उनके यहां हर मौके पर मैने बहुत अच्छी चीजें गिफ्ट में दी थी।


अब दूसरा झटका लगा कि जैसे कैसरोल बाहर निकालने लगी उसमें से कुछ टूट कर गिरा मेरी रिश्तेदार बोली, दीदी यह तो टूटा है। मैंने कहा ऐसा नहीं होगा क्योंकि मैं हमेशा कुछ खास ब्रांड   का ही कैसरोल लेती हूं। जो सालों साल चलता है। पर जब देखा तो कोई लोकल और बहुत घटिया क्वालिटी का सेट था और शायद बहुत दिनों से रखा था तो प्लास्टिक खराब हो गया था। वहां उपस्थित सभी लोग मजाक बना कर हंसने लगे। मुझे भी खराब लगा कि ऐसा गिफ्ट देने की क्या मजबूरी थी कि सबके बीच उपहास का केंद्र बनीं ।


अब आगे यह समस्या थी कि उसका मैं क्या करूं ???तो मेरी कामवाली बोली, भाभी हमें दे दीजिए हमारे काम आ जाएगा। हालांकि मैं जानबूझकर कभी किसी को ऐसी वस्तु नहीं देती हूं पर फेंकने से अच्छा लगा उसको दे दिया जाए। पर दो दिन बाद ही वह शिकायत लेकर आईं कि  भाभी इससे अच्छा तो कटरा की मंगलवार वाली बाजार में भी मिल जाता है। मैंने कहा तुम नाराज मत हो।

 तुम्हें पता था कि यह टूटा है फिर भी तुम अपनी मर्जी से लेकर गई थी। खैर बदले में वह मेरा पुराना कैसरोल  मांग कर ले गई।


यह घटना घटे 4 साल बीत चुका है और अभी भी मेरे रिश्तेदार फोन कर पूछ लेते हैं कि करोड़पति कैसरोल वाली कैसी हैं??? और मुस्कुराने के सिवा मैं  कुछ नहीं बोलती। यह तो मेरी आपबीती है। और शायद आप सब भी कभी-कभार ऐसी बातों से दो-चार होते होंगे। तो यह जरूरी नहीं है कि आप किसी मौके पर गिफ्ट दें। प्यार और अपनेपन से बड़ा कोई गिफ्ट नहीं होता है। 


लेकिन इस तरह का गिफ्ट ना दें कि आप स्वयं ही उपहास के पात्र बन जाए।


किसी के देने से किसी का काम नहीं चलता है। बस यह तो एक प्रेम भाव प्रदर्शित करता है। तो हम सब इस बात का ध्यान रखें कि प्रेम की जगह अपमान नहीं दिखना चाहिए। ना देने वाले का और ना ही लेने वाले का।


अपने घर में पड़े सामान को सधाने के लिए चमकीले पेपर में लपेटकर अपने घर का कबाड़ दूसरे के घर में नहीं फेंकना चाहिए। 


इससे तो अच्छा है कि आप मधुर मुस्कान का गिफ्ट देकर खुद भी खुश रहो और दूसरे को भी खुश कर दो और वही अनमोल उपहार है।

धन्यवाद...


वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका

डॉ. कुसुम पांडेय

"सम्मान का शगुन देकर--- मनाएं रक्षाबंधन" By Dr. Kusum Pandey



सूत या रेशम का मात्र एक धागा भाई बहन को ना सिर्फ प्रेम और सम्मान के बंधनों में बांधता है बल्कि रक्षाबंधन का पर्व रक्षा की उदात्त भावना के जरिए आपसी प्रेम का एक भयमुक्त सुंदर संसार रचता है

भारत की धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक चेतना दो ऐसे शिखर हैं जिनका मुकाबला संसार में कहीं नहीं हो सकता है। धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में भारत में जो भी पाया जाता है वह अद्भुत है।

रक्षाबंधन से जुड़ी अनेक कथाएं हैं उसमें पहली कथा है श्री कृष्ण और द्रौपदी की है। दूसरी कथा देवराज इंद्र, देव गुरु बृहस्पति वह इंद्राणी की भी है, कहा जाता है राक्षसों से युद्ध में जब इंद्र घबराकर देव गुरु बृहस्पति के पास आए तो इंद्राणी द्वारा निर्मित रक्षा सूत्र को देव गुरु ने इंद्र के हाथ पर बांधा था और देवराज इंद्र उसके बाद युद्ध में विजयी  हुए थे। ऐसी ही और भी बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं।

श्रावणी पर्व रक्षाबंधन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उपाकर्म अर्थात गुरु शिष्य के जुड़ाव के साथ अध्ययन अध्यापन की शुरुआत है। इसी दिन गुरु शिष्य को विद्या का दान देना आरंभ करते हैं और श्रावणी पर्व पूर्ण सार्थक होता है ।

हालांकि अब यह सब लगभग बंद हो चुका है।
पुराने दौर में घर की महिलाएं किसी ने सूती या  रेशमी कपड़े के एक हिस्से में कुछ चावल रख कर उसे सूत से बांधकर छोटी-छोटी पोटलिया बना दिया करती थी, फिर उन्हें हल्दी या केसर से रंग दिया जाता था और यही राखी बांधी जाती थी।
 लेकिन आज
 तो बाजार में बिकती बेहद खूबसूरत राखियों की लंबी लंबी दुकानें सज जाती हैं। यहां तक कि सोने चांदी आदि की राखियाँ भी मिलने लगी हैं।

कोरोनामहामारी के कारण इस बार मायके जाना तो कम ही हो पाएगा। एक दौर था कि जब ससुराल में स्त्रियां इंतजार करती थी कि कब सावन आए और वह मायके जा सकें। एक भावपूर्ण गीत सुना है,-- अम्मा मेरे बाबा को भेजो री, कि सावन आया सावन री। बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा रे, अम्मा मेरे भैया को भेजो री, बेटी तेरा भैया तो बाला रे  कि सावन आया सावन री।।

आज के समय में ऐसी विवशता तो नहीं है। लेकिन अब जब कोरोना  महामारी का समय है, तो बहुत सारे रास्ते बंद कर  रखे हैं। तब इस सावन में न जाने कितनी बेटियां हैं जिनके मन में पीड़ा है कि वह अपने भाइयों को राखी नहीं बांधी पाएंगी। तो लगता है कि सावन की नमी कई आंखों को शायद इस बार कुछ अधिक ही भिगो जाए।

वैसे मुझे लगता है कि रक्षा सूत्र का वास्तविक अर्थ भावनात्मक संबल है। रक्षाबंधन भावनाओं से जुड़ा पर्व है। महज रक्षा सूत्र बांधने से एक दूसरे की रक्षा का वादा क्या पूरा किया जा सकता है???? दिखावा इस पारंपरिक उत्सव को खोखला बना रहा है। दिखावे के चक्कर में हम कुछ ज्यादा ही उत्सव धर्मी हो गए हैं। प्रेम के इस पर्व में शान, शौकत दिखावे का कोई मतलब नहीं है। यदि भाई बहन एक दूसरे को भावनात्मक संरक्षण देते हैं तो स्नेह का बंधन ज्यादा मजबूत होता है।

हालांकि अब समय बदल गया है। हम स्त्रियों को अपनी सुरक्षा खुद करनी है। अपने स्वयं के भीतर ही शक्ति अर्जित करनी है कि हम अपनी वह दूसरों की भी सुरक्षा कर सकें। वैसे भी अब रक्षाबंधन का स्वरूप बदलना चाहिए। भाई बहन दोनों को एक दूसरे की सुरक्षा का ध्यान देना चाहिए।

जब से कानून बदले हैं और संपत्ति का अधिकार बहनों को मिलने लगा तो रिश्तो में एक तनाव दिखने लगा है। जबकि ज्यादातर लड़कियां अभी भी मायके से संपत्ति का बंटवारा नहीं चाहती हैं। वह तो सिर्फ अपना मायका जिंदा रखना चाहती हैं। लेकिन जितनी आसानी से कानून बनते हैं, उतनी आसानी से सामाजिक मान्यताएं नहीं बदलती हैं। यहां हर स्त्री को अपने भाई को बचाने की जरूरत पड़ती है। स्त्री अपना अधिकार भाई को दे देती है। लेकिन भाई को भी चाहिए कि घर का एक कोना तो अपनी बहन के लिए सुरक्षित रख दें ताकि वह कभी भी आए तो स्वाभिमान के साथ रह सके। और यही उसके स्वाभिमान का संरक्षण होगा। तोहफे देने से ज्यादा जरूरी प्यार व स्वाभिमान देना है।

पहले बहनों को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता था। तो तीज-त्यौहारो के माध्यम से उन्हें उपहार स्वरूप थोड़ा-थोड़ा कुछ देते थे। जो कि एक बहुत स्वस्थ परंपरा थी। अब तो सब कुछ बराबरी का होता जा रहा है। भाई कुछ देता है तो बदले में बहन भी देती है।

लेकिन आज के समय को देखते हुए सबसे बड़ा संरक्षण का धागा तो शिक्षा का है। शिक्षा का सूत्र पहन कर दो बहने जीवन में कदम बढ़ाती हैं वह ना सिर्फ अपना बल्कि अपने भाइयों का भी मान बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं। कोई भी पर्व यदि आपसी प्रेम व्यवहार से होता है, तो वह ज्यादा अच्छा रहता है। सही मायने में दोनों ही एक दूसरे के लिए प्रतिबद्ध हो।

इसलिए अब से यह जरूरी संकल्प लें कि  आपसी प्यार ही सबसे बड़ा संबल होता है। जो कि भाई बहन दोनों के लिए जरूरी है। दिखावे की चीजों व बातों से बचकर इस बार प्यार व सम्मान का शगुन देकर रक्षाबंधन का पर्व मनाए।

इसके साथ ही एक जरूरी बात है कि इस बार रक्षाबंधन में हम बहने देसी का दम दिखा दें। स्वदेशी राखी का ही इस्तेमाल करना है। आत्मनिर्भर का संकल्प दोहराते हुए देश में बनी राखियों का ही प्रयोग करें और साथ ही कोरोनावायरस से बचाव के सभी नियमों का पालन करें।

तभी सही मायने में भाई बहन एक दूसरे की रक्षा कर सकेंगे। स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें तथा लोकल फॉर वोकल का पालन करते हुए स्वदेशी का स्वाभिमान के साथ प्रयोग करें।

एक बार फिर इस पावन पर्व रक्षाबंधन की आप सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं धन्यवाद

डा. कुसुम पांडेय 
वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका

रिमझिम रिमझिम करता सावन आया, सावन आया। By Dr. KUSUM PANDEY

रिमझिम रिमझिम करता सावन आया, सावन आया।।

धरती की प्यास बुझाया, पेड़ पौधों को जी भर नहलाया

प्रकृति को सोलह सिंगार कराया, कजरी और गीतों का सावन आया

राग मल्हार का गीत सुनाया, मन मयूर भी खूब नाचा गाया

तीज त्योहारों का मौसम आया, सावन आया सावन आया

कजरी तीज, नाग पंचमी का पर्व मनाया,
पुआ गुलगुले और पकौड़ी जी भर खाया

रिमझिम रिमझिम करता, सावन आया सावन आया

भोलेनाथ ने विषपान कर, मानव पर अमृत बरसाया

धरा को हरा भरा कर सुखद और सुरम्य  बनाया

रिमझिम रिमझिम करता सावन आया, सावन आया

भले ही कोरोना ने  दूरी सिखाया,  पर दिल से प्यार वह भी ना मिटा
पाया

जाते-जाते सावन ने फिर प्यार बरसाया, भाई बहन का पावन पर्व लाया

रक्षाबंधन के त्यौहार ने फिर भाई बहन का प्यार जगाया

एक दूसरे बिना जीवन अधूरा, रिश्तो का फिर एहसास कराया

रिमझिम रिमझिम करता सावन आया, सावन आया

जाते जाते फिर यह समझाया, कि घरों में रहकर ही प्रेम बढ़ाओ

महामारी से अपनों को बचाओ

एक दूसरे की सुरक्षा का ही वचन निभाओ

प्यार के बंधन में बंध  कर रक्षाबंधन का पर्व मनाओ

रिमझिम रिमझिम  करता,  सावन आया सावन आया।।"

सहयोगी दलों के सहयोग से एनडीए तीसरी बार भी अपनी नैया पार लगाने की फिराक मे।

  आचार्य श्रीकान्त शास्त्री, वरिष्ठ पत्रकार  देश में आम चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक सरगर्मियां बड़ने लगी है और हर पार्टिया ‌अपनी ...