*गुरु बिन ज्ञान नहीं*

बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं दीजो दान हरि गुण गांऊ---- 

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। इसी दिन से 4 महीने तक साधु संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।
 हिंदू धर्म में गुरुओं को विशेष स्थान प्राप्त है।
कबीर दास जी ने कहा है "गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए" क्योंकि गुरु हमें अज्ञान के अंधेरे से निकालकर उजाले की ओर ले जाते हैं।
 इस बार गुरु पूर्णिमा 5 जुलाई को पड़ रही है। महर्षि वेदव्यास प्रथम विद्वान थे जिन्होंने सनातन धर्म के चारों वेदों की व्याख्या की थी, इसीलिए गुरु पूर्णिमा को वेदव्यास की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।
गुरु का अर्थ है -- अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरु कहा जाता  है। भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरु वाणी के आधार पर ही कायम हैं।गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है।

गुरु वशिष्ट से भला कौन परिचित नहीं है जिन की सलाह के बिना राजा दशरथ और राजा राम के दरबार में कोई काम नहीं होता था। देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उभारा, गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

गुरु को ईश्वर के विभिन्न रूपों ब्रह्म, विष्णु, महेश के रूप में भी स्वीकार किया गया है। कबीरदास जी कहते हैं "हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर"।
जैसे सूर्य के ताप से तपती भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

भारत में कई श्रेष्ठ गुरु हुए हैं जिनके बारे में मान्यता है कि स्वयं देवता एवं दैत्य इन गुरुओं के पास समय समय पर शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते रहे हैं।

महर्षि वेदव्यास जो स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे और सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत की रचना की थी।

महर्षि बाल्मीकि जिनको आदि कवि भी कहा गया है और इन्होंने रामायण की रचना की थी।

महर्षि परशुराम की गिनती प्राचीन भारत के महान योद्धा और गुरुओं  में होती है।

गुरु द्रोणाचार्य की गिनती महान धनुर्धरो में होती है आप कौरवों और पांडवों के गुरु थे।

महर्षि विश्वामित्र सनातन धर्म के महान ग्रंथों में महर्षि विश्वामित्र की सबसे ज्यादा चर्चा मिलती है।
महर्षि विश्वामित्र ने श्री राम और लक्ष्मण को कई अस्त्र शस्त्रों का ज्ञान दिया था।

गुरु सांदीपनि भगवान श्री कृष्ण के गुरु थे

देव गुरु बृहस्पति देवताओं के भी गुरु हैं।

दैत्य गुरु शुक्राचार्य कहते हैं भगवान शिव ने इन्हें मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया था।

चाणक्य आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणक्य को कौन नहीं जानता जिन्होंने भारत को एक सूत्र में बांध दिया था। दुनिया के सबसे पहले राजनीतिक षड्यंत्र के रचयिता आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य जैसे साधारण युवक को 
 सिकंदर और धनानंद जैसे महान सम्राटों के सामने खड़ा कर कूटनीति युद्ध कराए।

 गुरु शंकराचार्य ने भारत के चारों कोने में चार मठों की स्थापना की। उन्होंने हिंदुओं के चार धामों का पुनर्निर्माण कराया और सभी तीर्थों को पुनर्जीवित किया।

स्वामी समर्थ रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे, उन्होंने ही देशभर के अखाड़ों का निर्माण किया था।

रामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानंद के गुरु थे जो कि भक्तों की श्रेणी में श्रेष्ठ माने गए हैं। मां काली के भक्त श्री परमहंस प्रेम मार्गी भक्ति के समर्थक थे।

इसी तरह से और भी बहुत सारे श्रेष्ठ गुरु हमारे सनातन धर्म में हुए हैं, कहा गया है कि गुरु का जीवन में होना विशेष मायने रखता है। गुरु हमारे लिए किसी मूल्यवान वस्तु से कम नहीं है। गुरु का होना जीवन का मार्ग बदलने की तरह होता है।
गुरु इस संसार का सबसे शक्तिशाली अंग होता है, कुछ भी सीखने के लिए हमें गुरु की जरूरत पड़ती है। हमें अलग-अलग चीजें सीखने के लिए अलग-अलग गुण वाले गुरुओं की जरूरत होती है, जैसे डॉक्टर और इंजीनियर, सिलाई, ड्राइवर, शिक्षा,वैद्य, योग सभी के गुरु की जरूरत होती है क्योंकि सही दिशा मिलने पर ही हम उस कला में विजय प्राप्त कर सकते हैं, बिना गुरु जीवन भर हाथ पांव मारते रहिए।
 
गुरु मिलने मात्र से नहीं वरन गुरु के प्रति हृदय से श्रद्धा होनी चाहिए, विश्वास होना चाहिए, समर्पण होना चाहिए तभी हम उस कार्य की  समस्त बारीकियां सीख सकते हैं।

गुरु हमेशा अपने शिष्य को आगे बढ़ता देखना चाहता है, अपने शिष्य संपूर्ण बनाने में समस्त ज्ञान उसके सामने उड़ेल देता है। गुरु चुनते समय हमें बहुत सावधानी पूर्वक विचार करना चाहिए।

कबीर दास जी ने कहा है--- सद्गुरु ऐसा कीजिए, लोभ मोह भ्रम नाही, दरिया से न्यारा रहे, दीसे दरिया माही।।

"गुरु कीजिए जाने के, पानी पीजै छानि,
  बिना विचारे गुरु करें परे  चौरसी खानि।।"

हमारे देश में गुरु-शिष्य की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस  शुद्ध परंपरा का पालन करने वाला ही सच्चा गुरु व शिष्य कहलायेगा,  और तभी जीवन सार्थक व गौरवशाली बन सकता है।
" यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान, सीस दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।

गुरु को भी अपनी मर्यादा पालन करते रहना चाहिए और शिष्य  गुरु के प्रति समर्पित होकर शिक्षा लेता है, तो वह एक महान लक्ष्य हासिल कर लेता है, "गुरु कुम्हार शिष् कुंभ है, गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट,अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।"

भले ही आज के आधुनिक समय में गुरु-शिष्य का स्वरूप बदलता जा रहा है लेकिन इस सत्य को नहीं बुलाया जा सकता कि गुरु बिना ज्ञान नहीं मिल सकता। कई बार कोई राह चलता भी हमें सीख दे जाता है तो उस समय वह भी गुरु का काम करता है। समय भी जीवन का गुरु ही है यह भी बहुत कुछ सिखाता है। यहां तक कि रास्ते में पड़ा पत्थर जिससे ठोकर खाकर हम संभालना सीखते हैं उस समय वह भी गुरु होता है। एक गुरु हमारे अंदर ही होता है जो हमारे सही गलत का ज्ञान कराता है और वह हमारी अंतरात्मा।
 गुरु की महिमा और उसके रूप के स्वरूप के बारे में कबीर दास जी ने कहा है "गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान,  तीन लोक की संपदा, सो  गुरु दीन्ही दान।।"
धन्यवाद........
वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका
 डॉ. कुसुम पांडेय

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