"मस्ती की पाठशाला" (Written By Dr. Kusum Pandey)

मस्ती की पाठशाला

वास्तव में क्या ऐसा संभव हो सकता है??? यह बात बार-बार मन पर एक प्रहार सा करती है। शिक्षा के नाम पर क्या मस्ती की पाठशाला चलाई जा सकती है??


आज के समय में तो यह विचार बहुत बेतुका सा लगता है क्योंकि अब तो बच्चा कुछ बोलना और समझना शुरू करें तभी से उसे ABCD रटाया जाने लगता है।

बड़े गर्व से कहा जाता है कि यह Eyes, Nose बता लेता है और साथ ही इसे मोबाइल के बिना चैन ही नहीं पड़ता तो लीजिए हमारे भोले भाले दयालु और उदार प्रकृति ने आज हमें ऐसी जगह ला खड़ा कर दिया है जहां सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है। तो मोबाइल, कंप्यूटर लैपटॉप की महत्ता अत्यंत बढ़ गई है।


ऑनलाइन स्कूल चल रहे हैं। परीक्षाएं हो रही हैं और साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।


अभी कुछ दिन पहले ही पढ़ा था कि ऑनलाइन क्लास करने से और लगातार एक जगह बैठे रहने से बच्चों में कितने मानसिक विकार पैदा हो रहे हैं और साथ ही उनकी आंखों के लिए नई समस्याएं जन्म ले रही हैं, तो ऐसे में बरबस गुजरा हुआ जमाना मतलब हमारी उम्र वालों का जमाना याद आता है जहां पढ़ाई कभी समस्या नहीं थी। 

पढ़ाई के साथ साथ मस्ती की पाठशाला भी चलती थी।


वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में गुरुकुल शिक्षा पद्धति थी, जहां पर व्यक्तित्व निर्माण की शिक्षा दी जाती थी। उस समय का दौर बीता तो धीरे-धीरे बहुत से बदलावों के  बाद आजाद भारत की गुलाम शिक्षा पद्धति ने स्थान ले लिया। जहां पर बस अंग्रेज बनाने की होड़ लग गई है। आज के दौर में अगर बच्चा अंग्रेजी स्कूल में नहीं पड़ता है तो यह एक शर्म की बात मानी जाती है।

सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम के अलग कक्षाएं चलती हैं। चलिए भाषा से किसी को कोई बैर रही है, परंतु बच्चों का शोषण भाषा के नाम पर किया जाना तो सर्वथा अनुचित है।


कोरोनावायरस में एक बड़ी समस्या आई कि बच्चों की पढ़ाई कैसे शुरू की जाए?? स्कूल जाना तो अभी संभव नहीं जान पड़ता तो ऑनलाइन। बच्चे  शुरू शुरू में तो बहुत खुश हुए लेकिन धीरे-धीरे उनकी स्वास्थ्य समस्याएं खासकर आंखों के लिए हानिकारक बन गई।


"जान है तो जहान है" का सिद्धांत कम से कम बच्चों के लिए तो होना ही चाहिए। यह ज्यादा उचित होता कि 1 साल की पढ़ाई बच्चों की रुचि के अनुसार कुछ क्रियात्मक कार्य करके करवाई जाती इससे ना तो अभिभावकों पर कोई आर्थिक बोझ पड़ता और ना ही बच्चों को एक ही स्थान पर बैठे-बैठे अपनी आंखों और दिमाग को ऑनलाइन करना पड़ता।


कोविड-19 में बहुत से देशों में 0 शिक्षा सत्र कर दिया गया जो कि एक सराहनीय कदम है, क्योंकि जान जोखिम में डालकर अनावश्यक आर्थिक और मानसिक तनाव की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती है।


ऐसे में हमारे देश में कौन सी नौकरियों की बाढ़ आ गई है कि अगर बच्चे एक साल नहीं पढ़ेंगे तो सब नौकरियां व्यर्थ हो जाएंगी। जैसे हम सब बातों में अपने को पढ़ा-लिखा कहते हैं, तो उसी तरह बच्चों के भविष्य को लेकर भी हमें अपने अनुभव के आधार पर उनके उचित विकास के लिए अब रटन्त विद्या को छोड़कर वास्तव में मस्ती की पाठशाला पर जरूर ध्यान देना चाहिए। उनके अंदर के कौशल को निखारने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए।

 यह बहुत ही अच्छा अवसर था जबकि बच्चे पढ़ाई के बोझ से बच कर अपने अंदर छिपी प्रतिभा पर भी ध्यान दे पाते।


यह एक तरह से देश हित में भी सार्थक कदम होता, क्योंकि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में सिर्फ सरकारी, गैर सरकारी नौकरियां ही नहीं वरन व्यक्तिगत तौर पर अपने गुणों का विकास करना और उसके आधार पर अपनी जीविका के लिए आगे बढ़ने का विचार भी बहुत सहायक होता।


मस्ती की पाठशाला हर उम्र के लिए उतनी ही जरूरी है। अनावश्यक तनाव से कार्यक्षमता पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, फिर वह चाहे किसी भी उम्र का हो। अभी भी समय है जो बीत गया उससे अनुभव लेते हुए अपने देश के युवाओं और बच्चों के लिए एक स्वस्थ वातावरण को तैयार करना नितांत आवश्यक ही नहीं वरन् हम सबकी जिम्मेदारी भी है। 


देश का भविष्य इन्हीं बच्चों और युवाओं के हाथों में है, तो हमारे अनुभव का लाभ भी तो उनके लिए उतना ही जरूरी है क्योंकि अगर हमने तनाव रहित वातावरण का सुख पाया है तो हमारी इस पीढ़ी को और आगे आने वाली पीढ़ियों को भी वही सुख पाने का पूरा अधिकार है। 


अनुभव भी यही कहता है कि जब से सरकारी नौकरियों को ज्यादा वरीयता दी जाने लगी है तबसे बेरोजगारी लगातार बढ़ती ही जा रही है।

फिर क्यों ना अपनी प्रतिभा को ही अपने जीवन यापन का आधार बनाया जाए और यह तभी संभव है, जब इस गला काट प्रतिस्पर्धा से हटकर सभी स्व रोजगार की तरफ अपना ध्यान दें। कुछ पाने के लिए कुछ नया सोचना और उसे क्रियान्वित करना तो हर तरह से उचित ही जान पड़ता है।

धन्यवाद

डॉ. कुसुम पांडेय

वरिष्ठ अधिवक्ता समाजसेवी एवं लेखिका

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