"प्लास्टिक के प्रति दीवानापन"

दीवाने हुए पागल... सही तो है यह दीवानापन धीरे-धीरे पागलों की तरह ही बढ़ता जा रहा है। एक तरफ तो कहा जाता है कि प्लास्टिक मुक्त धरती और प्लास्टिक मुक्त देश बनाना है और वहीं दूसरी तरफ जिसको देखो वह  अनायास ही, या जानबूझकर  प्लास्टिक के प्रति अपनी आसक्ति बढ़ाता ही जा रहा है।
जहां यह बात सही है कि प्लास्टिक धरती के लिए बहुत नुकसानदायक है। तो फिर निरंतर इसका उत्पादन क्यों होता जा रहा है???? इतना बड़ा प्लास्टिक उद्योग फल फूल रहा है। क्या उस वक्त किसी को यह पता नहीं था कि प्लास्टिक का कचरा निस्तारण करना कितना कठिन कार्य है?

चलिए अब तो सब यह भली-भांति जानते हैं की प्लास्टिक कितना नुकसानदायक है, फिर क्यों आंखें मूंदे बैठे हैं। अगर पहले गलती हो गई है तो उसको सुधारा नहीं जा सकता क्या? 

सब कुछ सजावटी व सुंदर लगाने के चक्कर में हम इस प्लास्टिक के चक्रव्यूह में फंस कर रह गए हैं। हर तरफ हर चीज में किसी न किसी रूप में प्लास्टिक दिख ही जाता है।

हमारे बचपन को वास्तव में सुनहरा काल कहना चाहिए 70 - 80 के दशक तक प्लास्टिक की इतनी निर्भरता नहीं थी। राशन वगैरह सब कागज के पैकेट में या झोले में या गत्ते की पेटी में करके आते थे। राशन घर में साफ किया जाता था, क्योंकि खुला ही बिकता था और सब लोग आराम से करते भी थे।

लेकिन अब तो हर चीज प्लास्टिक में पैक मिलेगी और यदि खुली मिल भी जाए तो प्लास्टिक की पन्नी में डालकर ही मिलेगी।

सरकार की तरफ से कई बार प्लास्टिक बंद अभियान चलाए गए। छोटे, बड़े दुकानदारों, सब्जी वालों, फल वालों पर चालान भी हुए लेकिन कुछ ही दिनों में सब टाॅय टाॅय फिसस्

इसके पीछे ढुलमुल सरकारी नीति के साथ, आम जनता का कमजोर मनोबल भी है। अगर कोई चीज धरती के लिए इतनी नुकसानदायक है, तो उसको कम से कम उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए।

कम से कम सब्जी, फल, राशन वगैरा तो झोले में ला सकते हैं। अगर दरवाजे पर ही सब्जी ले रहे हैं तो बांस की डलिया प्रयोग में ला सकते हैं। एक बार इस्तेमाल करके फेंकने वाली वस्तुओं पर रोक लगानी चाहिए।

होटलों और रेस्टोरेंट आदि में भी खाना पैक करने के लिए प्लास्टिक के डिब्बों पर रोक लगनी चाहिए, क्योंकि वह डिब्बे फिर कूड़े में ही जाते हैं। कोशिश तो करनी चाहिए कि अगर खाना पैक करा कर घर ले जाना है तो घर से ही अपना बर्तन लेकर जाएं और होटल वालों को भी इसे प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रयास करने से सब कुछ संभव हो सकता है। बस जरूरत सही दिशा में सही कदम बढ़ाने की है। और वह दिन आज से ही शुरू हो सकता है।

हम सभी को इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि हम व्यर्थ में ज्यादा प्लास्टिक का कचरा ना पैदा करें। *यूज एंड थ्रो* की आदत को कम करने का प्रयास करना चाहिए। हमारा छोटा सा प्रयास ही बड़े बड़े बदलाव ला सकता है।

प्लास्टिक कितना नुकसानदायक है, यह जानते तो सभी लोग हैं। लेकिन इस्तेमाल करते समय भूल जाते हैं। 

तो कृपया आप अपनी भूल सुधारें और प्लास्टिक के प्रति अपनी निर्भरता को धीरे धीरे कम करते जाएं।
आप लोगों को शायद थोड़ा अजीब लगे लेकिन मैं खुद दरवाजे पर सब्जी बांस की डलिया में ही लेती हूं और अपनी कॉलोनी के सभी लोगों से यह आग्रह भी करती हूं कि वह भी ऐसा ही करें और ऐसा पिछले कई सालों से कर रही हूं और साथ ही जो नमकीन वगैरा के पैकेट आते हैं उन्हें भी खाली होने के बाद कूड़े आदि के लिए इस्तेमाल करती हूं। बेवजह पॉलिथीन में सामान लेने से हमेशा बचती हूं। यह सब प्रयास करके मुझे बहुत खुशी भी मिलती है।

तो आइए हम सब मिलकर प्लास्टिक का कचरा कम करने का सार्थक प्रयास करते हैं *मुझमें है महात्मा*का ध्यान करते हुए गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए स्वच्छता को  लगातार अपनाते जाएं। अपने लक्ष्य को पाने के लिए निरंतर संघर्ष और प्रयास करते जाना चाहिए तभी तो हम कह सकते हैं कि *मुझमें है महात्मा*
पर्यावरण की शुद्धता के लिए बापू के विचारों को अपनाते हुए प्रकृति के साथ मेल बिठाकर चलते हुए ही सृष्टि को भारी विनाश से हम बचा सकते हैं।

हमें प्रकृति के साथ मधुर संबंध बनाना होगा। प्राकृतिक चीजों के प्रति दयालु बनना होगा और साथ ही अपनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का बार-बार स्मरण करना चाहिए कि हमारे देश में हजारों वर्षों से पेड़, पौधों और प्रकृति के प्रति बहुत उदार भावना थी। और  उन्हें सजीव मानकर उनका पूजन और संरक्षण किया जाता है। और अपनी इस परंपरा को हमें निरंतर आगे बढ़ाने का पूरी दृढ़ता से प्रयास करना चाहिए।
सब की भलाई में ही विश्व की भलाई निहित है, और पूरे विश्व की भलाई प्रकृति की भलाई में निहित है। हम 
सबका इको फ्रेंडली बनना बहुत जरूरी है तभी वास्तव में हम कह सकते हैं कि *मुझमें है महात्मा*

डॉ कुसुम पांडेय
वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका

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