"सावन आया... न तन भीगा, न मन भरा" :- डॉ. कुसुम पांडेय

आधा अधूरा मानसून आ गया लेकिन मदमस्त झूमता सावन नहीं आया। न तन भीगा न मन नहाया, न मिट्टी की सोंधी खुशबू फूटी न मोर नाचे ना कोयल की कू कू सुनाई दी। कजरी और राग मल्हार भी बस यूट्यूब पर ही सुनाई दिए।
 इस बार तो बहू बेटियां भी मायके नहीं जा पाई  बस पिया की दो टकियो  की नौकरी पर ही आफत आई तो बोलो सखी कैसे मनाए सावन???

सावन संयम तोड़ता है। बादलों तक में संयम नहीं रहता, कभी भी बरस पड़ते हैं लेकिन वह भी कुछ दिन से बहका रहे हैं। नदियाँ  जरूर उफनने लगती है। बांध तोड़ बहती हैं। हां प्रकृति तो अपने सौंदर्य के चरम पर है। उसका सोलह सिंगार दिखता है। अंतहीन हरियाली दिखती है," रिमझिम रिमझिम आई सावन की बहार रे"

सावनी फुहार प्रेमी जोड़ों को प्रेम रस में भिगोती है। मन की नदियां बांध लांघ बहती हैं। सखियों संग झूला कजरी, नाच गाने का माहौल रहता है। घर घर से गुलगुले, मालपुए और पकौड़ियों की खुशबू आती है।
 मान मनुहार का भी सावन आता है। इस कजरी में--- तुम को आने में तुमको बुलाने में कई सावन बरस गए साजना"

आयुर्वेद भी मानता है कि सावन में मनुष्य के भीतर रस संचार ज्यादा होता है। साधु संत भी इस दौरान समाज से कटकर चौमासा मनाते थे। सावन माह में शिव पूजा का विशेष महत्व है। सावन प्रकृति और मनुष्य के रिश्तो को समझने और उसके निकट जाने का भरपूर मौका भी देता है।

लेकिन दुख है कि अब पहले जैसा सावन नहीं आता बारिश की टपकती बूंदों की आवाज जो मन को आनंदित कर देती है, कागज की कश्ती भी  अब तरसती है बारिश के पानी के लिए। हां अब कागज की नाव चलाने वाले बच्चे भी नहीं हैं। अब वह सब पुरानी बातें लगती हैं।

धार्मिक लिहाज से भी यह महीना उत्तम माना जाता है। सावन में ही समुद्र मंथन हुआ था। शिवजी ने इसी महीने में विषपान किया था, इसीलिए यह पूरा माह  भोले बाबा को समर्पित है।

अबकी मानसून धोखा दे गया। बादल ने समूचे मौसम विभाग को छकाया है।उसे झूठा  साबित कर दिया। वो लहरेदार बारिश को मन तरस रहा है। बादल आए तो लेकिन दबे पाव वापस लौट गए।

वैसे भी इस बार तो सावन को कोरोना ने  डस लिया है। कोरोना  का असर साफ दिख रहा है। शारीरिक दूरी और सावन नहीं---- यह तो महीना ही सखियों संग हंसी ठिठोली का है। पर अभी कुछ किया भी नहीं जा सकता है ।

वैसे भी अब सावन तो आता है पर मन में उमंग नहीं भरता क्योंकि मिट्टी की खुशबू को मन तरसता है। पेड़ों पर पड़े झूलों को याद करता है। कजरी की हंसी ठिठोली ढूंढता है। जहां रिश्तो में नोकझोंक के साथ प्यार और मनुहार भी हुआ करता था। कोई दिखावा नहीं होता था। सभी रिश्ते सामाजिकता और व्यावहारिकता से भरे रहते थे।

पर कोई बात नहीं,इस  आशा के साथ कि अगला सावन बहुत उत्साह पूर्ण होगा और पुराने दिन फिर से वापस आएंगे, तो चलिए हम कोरोना महामारी
 का ध्यान रखते हुए बचाव के नियमों का पालन करते हैं। जिससे इस महामारी से बचा जा सके क्योंकि सिर्फ सरकारी प्रयासों और डॉक्टरों के ऊपर ही सारी जिम्मेदारी डाल देना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा।

तीज त्योहार अब इस इस साल घर पर ही मनाना है। मन को मयूर बनाकर नचाना है। जो है, जैसा है, उसी रूप में मन को खुश करते हुए बचा हुआ सावन  मनाना है।

डॉ. कुसुम पांडे
वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका

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