"यादों के झरोखों से"

"अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में ली जो बुलाए रे।। लौटेंगी  जब मेरे बचपन की सखियां, दीजों संदेशा भेजाय रे।।"
आज जब इस गीत को सुनने बैठी तो बहुत सारी  पुरानी बातें याद आने लगीं, यूं कह सकते हैं कि यादों की बारात निकल पड़ी।

कोविड-19 में 25 मार्च से लॉकडाउन शुरू हुआ जो 5 चरणों में चला--- जिसमें लोगों से कहा गया घर में रहें स्वस्थ रहें क्योंकि कोरोना महामारी से बचाव का एक मुख्य उपाय शारीरिक दूरी भी बताया गया है। कोविड-19 ने एक वैश्विक महामारी बनकर पूरी दुनिया को भयभीत कर रखा है, ऐसा लगता है कि आखिर इस कोरोनावायरस से कब मुक्ति मिलेगी, लोग कहते थे कि गर्मी तक, फिर गर्मी भी बीत गई। अब नवंबर, दिसंबर तक और ज्योतिषियों का कहना है कि अगले साल मार्च तक सब ठीक हो जाएगा।

 अब यह सब समय बहुत लंबा लग रहा है और कभी कभी उबाऊ भी लगने लगता है। आखिर इतनेे सालों की आजादी, घूमने फिरने की स्वतंत्रता, बाहर खाने का फैशन, यहां तक की लोग इतने आजाद ख्याल हो गए थे कि कई घरों में तो घर में खाना बनाना भी बोझ  लगने लगा। बस जब मन चाहे फोन करो खाना हाजिर फिर परेशानी क्यों मोल ली जाए।

लेकिन कोरोना काल ने  हालात बदल दिए, जो कभी किचन का मुंह नहीं देखते थे, वह भी यूट्यूब से स्वादिष्ट खाना बनाना सीख गए।जान है तो जहान है और अपनों की जान तो सभी को प्यारी है।
अतीत की यादों में देखती हूं तो लगता है कैसे हमारी नानी, दादी माँ,बुआ,ताई,मौसी ऐ सारे ही जो रिश्ते थे, कैसे लंबे समय तक एक ही जगह पर आज की भाषा में कोरेनटाइन रहती थी। उस समय मायका और ससुराल बस दो ही जगह थी उनके पास आने जाने की। ना कोई हाट बाजार, ना कहीं होटल या फिल्म। कभी-कभी तो दो-तीन साल तक मायके नहीं जा पाती थी। कोई खास मौका पड़े तभी मायके जाने को मिलता था। मेरी मां ने भी बताया था कि एक बार वह 3 साल तक अपने मायके नहीं जा पाईं थीं। आखिर उन लोगों में कितना सब्र था। कैसे इतना संयम करके चलती थीं, फिर भी हर चीज में खुश रहती थीं ।

हाँ सावन के महीने में मायके जाने की योजना रहती थी, क्योंकि कजरी, झूला, सारे त्यौहार जैसे गुड़िया, राखी सावन में ही पङते थे और सखियां भी सावन में ही मायके में मिल पाती थी। फोन वगैहरा की तो व्यवस्था थी नहीं। लेकिन आजकल तो यह स्वरूप गांवों में भी कम ही दिखाई पड़ता है।

 मन यह सोचने पर विवश हो गया कि हम तो इतने दिनों में ही ऊब  गए और उन लोगों ने कैसे लंबे समय तक, सालों साल यह सब निभाया है। वह भी खुशी खुशी काम करते हुए और पारिवारिक रिश्तो को भी पूरी मधुरता से निभाते हुए।
 फिर आया हम लोगों का समय तो शुरू में  थोड़े नियम कायदे थे, लेकिन धीरे-धीरे एकांकी परिवार बढ़ते गए और साथ ही स्वतंत्रता भी बढ़ती गई।
घर घर में काम करने वाली बाई, खाना बनाने वाली और अगर नहीं आई तो होटल जिंदाबाद, लेकिन यह सब अब जल्दी संभव नहीं हो पाएगा।

तो नानी, दादी और मां का याद आना स्वाभाविक है, कहते हैं कि "नानी याद आ गई" हां उनके प्रति दिल श्रद्धा से भर उठा क्योंकि वह हमारी माताएं बहुत अच्छे संस्कार देकर गई हैं और उनको सहेजने की जिम्मेदारी हम लोगों को दिल से स्वीकार कर लेनी चाहिए। तीज त्यौहार घर में ही मनाएं लेकिन पूरे उत्साह के साथ रहें। 
"सावन का महीना पवन करे सोर" इस गाने को गुनगुनाते हुए कभी मन हो तो कजरी गुनगुनाए नहीं तो यूट्यूब पर भी सुन सकती हैं। बारिश होने पर घर में बना कर पकौड़ी, गुलगुले खाएं। बहन बेटियों को मायके बुला न सके तो कोई बात नहीं, यह समय की नजाकत है लेकिन कम से कम उनसे फोन से बात करके उनके विशेष होने का एहसास कराएं। जिससे बहू, बेटियों को भी अपना वाला सावन याद आए और पुरानी यादें ताजा हो जाएं। क्योंकि किसी को खुशी देने से बड़ा कोई उपहार नहीं होता और मायके से आया संदेशा उनके लिए सावन में सबसे बड़ा उपहार होगा।
धन्यवाद

वरिष्ठ समाजसेवी, अधिवक्ता एवं लेखिका
डॉ. कुसुम पांडेय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें